ज़रा सोचें कि अगर आपके चेहरे के एक ओर की स्किन का रंग खराब होने लगे और स्किन में झुर्रियां पड़ने लगे, साथ ही दूसरी तरफ की स्किन बिल्कुल सामान्य रहे, तो कैसा लगेगा। जी हां, ऐसा कुछ बच्चों में युवावस्था शुरू होने से दौरान देखा गया है। इस बीमारी को एन कूप डे सेबर (चेहरे, स्कैल्प और कभी-कभी शरीर के एक तरफ के अंग को प्रभावित करने वाले मेडिकल डिसऑर्डर का ग्रुप) कहते हैं।
एन कूप डे सेबर, एक प्रकार का लिनियर स्क्लेरोडर्मा (स्किन में पिगमेंट में बदलाव के साथ स्किन के अंदर के फैट का तेज़ी से घटना) है। अधिकांशतः यह युवाओं में देखा जाता है, जिसे प्रोग्रेसिव हेमिफेशियल एट्रोफी या पैरी रॉमबर्ग सिंड्रोम भी कहा जाता है। आमतौर पर यह जीवन के पहले दशक में शुरू होता है, लेकिन डिसऑर्डर से जुड़ी यह बीमारी बाद की उम्र (40 या 50 वर्ष) में भी हो सकती है।
शुरुआत में, चेहरे के एक तरफ का अंग सिकुड़ जाता है, लेकिन किसी को नज़र नहीं आता है। अधिकांश लोग छह महीने के बाद अंतर को देख पाते हैं। स्किन में हाइपरपिगमेंटेशन, बीमारी के प्रभाव दिखाने के कुछ समय बाद दिखाई देने लगता है, जिसमें स्किन पतली होती जाती है और स्किन के अंदर मौजूद रहने वाला फैट कम होता जाता है।
अधिकांश मामलों में बच्चे नौ या दस वर्ष की आयु से इस डिसऑर्डर से पीड़ित होने लगते हैं। इसमें मुश्किल बात यह है कि जब बच्चे की उम्र 14 वर्ष तक हो जाती है और चेहरे का पूरी तरह विकास हो जाता है, तभी डॉक्टर चेहरे को ठीक करने के लिए इलाज या प्रोसीज़र कर सकते हैं।
हाल ही में एक बच्चा हॉस्पिटल में लाया गया, जिसके चेहरे के एक तरफ की स्किन में आंशिक रूप से हाइपरपिगमेंटेड की समस्या थी। बच्चे की मां की शिकायत थी कि उसके बच्चे के चेहरे में एक तरफ बस स्किन और हड्डी ही है और फैट और मांसपेशियां अब नहीं बची हैं। बच्चे को यह बीमारी पांच वर्ष से शुरू हो गई थी। माता-पिता ने कई एक्सपर्ट्स से इलाज कराया, लेकिन कुछ काम नहीं आया। विभिन्न हॉस्पिटल्स में इलाज कराने, स्टेरॉयड और अन्य मेडिकल क्रीम लगाने के बाद भी जब कुछ काम नहीं आया, तो माता-पिता बच्चे को यहां ले आए।
जब बच्चे के टेस्ट रिजल्ट नॉर्मल आए, तो हमारी शंका और मज़बूत हो गई कि यह स्क्लेरोडर्मा का मामला है, फिर एक्सपर्ट ने कन्फर्म कर दिया कि यह एन कूप डे सेबर है।
खास बात यह है कि बीमारी का वास्तविक कारण अभी तक पता नहीं चला है, इसलिए एक्सपर्ट यह अंदाज़ा लगाते हैं कि यह बीमारी संभवतः जेनेटिक और ऑटोइम्यून समस्याओं के साथ मल्टी-फैक्टोरियल है। साथ ही, अभी तक इसकी पहचान करने के लिए कोई खास टेस्ट नहीं है। इस डिसऑर्डर को कम या मैनेज करने के लिए कोई खास इलाज नहीं है। आश्चर्य की बात तो यह है कि चेहरे पर इसके लक्षण दिखने के बाद भी कोई यह जान नहीं पाता है कि बच्चे को यह बीमारी हो रही है।
बस राहत की बात यह है कि 16 से 18 वर्ष की उम्र के बाद यह डिसऑर्डर आमतौर पर आगे नहीं बढ़ता है। इसी समय रिकंस्ट्रक्टिव सर्जरी कराने की सलाह दी जाती है।
प्लास्टिक सर्जरी से इस डिसऑर्डर के कारण होने वाले नुकसान से बच्चे को रिकवर होने में मदद मिल सकती है। समय-समय पर एक्सपर्ट्स रिकवरी में मदद के लिए अन्य प्रोसीज़र की भी सलाह दे सकते हैं।
इस बीमारी की एक और परेशान करने वाली खास बात यह है कि हर बार इसका सफल इलाज करना संभव नहीं है, क्योंकि अपनाए जाने वाले प्रोसीज़र का डिसऑर्डर पर अधिक असर नहीं होता है।
कुछ ऐसा ही 19वीं शताब्दी के अमेरिकी फिज़िशियन एडवर्ड लिविंगस्टन ट्रूडो ने कहा था, हम “कभी-कभी ठीक करने, अक्सर राहत देने और हमेशा आराम देने” की कोशिश करते हैं।